टुकड़े
उदास कदमो की आहट अब चुकती नहीं,
शायद तुम्हारी परछाईया सिमट चुकी हैं ,
या तुम्हारा अस्तित्व स्वार्थ के घने कोहरों में धुंधला गया हैं
महत्वकांछाओ की बुनियाद पे टिके,
महल की छत पर खड़े हो क्या गगन को पा लोगे ?
बंद कमरों के साये का आलिंगन करते
अपनी दुनिया को चार कमरों में सीमित कर लिया हैं तुमने
तुम बाटे जा चुके हो
कई टुकडो में
कुछ भयवश
कुछ मजबूरी वश
तुम एक नहीं रहे ,
अनेक हो गए हो
एक होना वैसे भी कब चाहा था तुमने ?
पृथक पृथक ही रखा करते थे स्वयं को
उत्तरदायित्वों से.
शायद तुम्हारी परछाईया सिमट चुकी हैं ,
या तुम्हारा अस्तित्व स्वार्थ के घने कोहरों में धुंधला गया हैं
महत्वकांछाओ की बुनियाद पे टिके,
महल की छत पर खड़े हो क्या गगन को पा लोगे ?
बंद कमरों के साये का आलिंगन करते
अपनी दुनिया को चार कमरों में सीमित कर लिया हैं तुमने
तुम बाटे जा चुके हो
कई टुकडो में
कुछ भयवश
कुछ मजबूरी वश
तुम एक नहीं रहे ,
अनेक हो गए हो
एक होना वैसे भी कब चाहा था तुमने ?
पृथक पृथक ही रखा करते थे स्वयं को
उत्तरदायित्वों से.
कविता एक माध्यम होती है कम शब्दों में बहुत कुछ कह देने के और आप इसमें पारंगत हैं. शब्द ही तो हैं जो सब कुछ बयान कर देते हैं...सोच, समझ, एहसास, भावनाएं
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