Sunday, June 27, 2021

मैं तुम और हम

तुमको अलविदा कहने के ठीक पहले

मैं कहना चाहता था की

बहुत कुछ सीखा हैं मैंने तुमसे,

जैसे तुमने कहा था कि 

हमारा “हम”,

मेरे “मैं”, और तुम्हारे “तुम”

दोनों से बहुत बड़ा हैं,

और जबकि तुम,

हमारे “हम” में अपना “तुम” समाने को हमेशा तैयार थी, 

तब भी मैं,

मेरा “मैं” थामे तटस्थ खड़ा रहा |


हमारे “हम’ के बिखरने के बाद का बचा हुआ मैं,

अगर बचा रहा तो,

सिर्फ उन स्मृतियों में ही बचा रहूँगा,

जिनमे मेरे "तुम" का पर्याय सिर्फ "तुम "ही थी,

मैं तुम्हारे कहे गए शब्दों में ही व्यक्त कर पाउँगा स्वयं को 

और तुम्हारे दिए गए सम्बोधनों से ही पुकारा जाऊंगा।


मैं आगे बढ़ने की किसी भी कोशिश में 

तुम्हारी ही दिखाई किसी दिशा में पाउँगा खुद को, 


खुद को पाने के किसी भी प्रयास में 

शायद मैं तुम्हारी ही ओर लौट आऊंगा |

 


Thursday, June 24, 2021

अकेलेपन में 

मेरे अकेलेपन में समय की इकाई अब मिनटों में नहीं होती,

बल्कि इस बात से की मैं कितनी बार फ़ोन में तुम्हारे आखिरी मैसेज को देखता हूँ, 

तुम्हारा आखिरी मैसेज हमारे अंतिम संवाद का पूर्णविराम,

समय वही थम गया था उस पल,

अब वह उल्टे क्रम में चलता हैं, 

अंतिम संवाद से पूर्वोत्तर,

हमारे बिखरने से पहले, 

पहचान के पहले दिन की ओर, 

अंत से प्रारंभ की दिशा में। 


मैं अपने अकेलेपन में प्रत्येक उस दृश्य को नकार देता हूँ जिसमें तुम उपस्तिथ नहीं हो, 

मैं अब स्वयं के एक होने पर प्रश्न करने लगा हूँ, 

इसके स्पस्टीकरण के लिए जब मैं आईने में देखता हूँ तो तुम्हे पाता हूँ,

अब आइना मुझे तुमसे जोड़ देता हैं,

मेरे अस्तित्व की पूर्णता ऐसे ही होनी थी,

तुमसे एकात्म का बोध ही मेरे प्रेम की परिणीति हैं। 

Saturday, June 16, 2018

सबसे कठिन


सबसे कठिन था खुद से ही संवाद करना,


मैं अपने कमरे में अपनी तस्वीर में खुद को खोजता हूँ,


मैंने खुद को देखा हैं हमेशा कनखियों से, 


सीधे देखने में हमेशा एक संकोच बना रहा,


मैं बहुत जल्दी हांफ गया 


जब भी अपने अन्दर गहरे उतरने का प्रयास किया,


मैं खुद से ही सबसे ज्यादा अनभिज्ञ था,  


खुद को न जान पाने के कारण ही जैसे सब कुछ खोया हैं मैंने !


डर 

डर कुछ भी सहेज कर रखे जाने की 
कोशिशो के बीच में ही बिखर जाने जैसा जान पड़ा,

डर कुछ भी कहे जाने से पहले 
सोच को बनाने में लगे होंसलों के पस्त होने जैसा सामने था,

डर अपनी आमद में दबे पाँव उतरा था ज़ेहन में 
या बेधड़क घुस आया था ?

डर उम्मीदों की रिक्तताओ में घर बना चूका था,

डर प्रत्येक स्वीकृतियों में अनिवार्यतः आसन्न रूप हैं,

डर अपनी निर्ममता में अस्तित्व के ऊपर कुंडली मार के जा बैठा हैं 


मेरे कागज़ कोरे ही सही कुचेले न होंगे ! 

बचपन से ही मेरी लिखाई बहुत सुन्दर थी,
इम्तिहान में मुझे लिखे हुएं से ज्यादा लिखाई के नंबर मिल जाते थे,
फिर कवितायें लिखने लगा,
पापा ने एक डायरी ला के दी थी जन्मदिन पर,
सुनहरी कवर सफ़ेद झक पन्नो वाली,
कविता पहले रफ में लिख लेता काटपीट के साथ किसी कागज़ में,
और फिर पूरी होने पर जैल वाले पेन से डायरी में उतार लेता पूरे मन से |

मुझे लिखने में सफाई बहुत पसंद थी, लिखे जाने से भी ज्यादा
इतनी की जब लिखता तो दिल धड़कता,
सावधानी से ..कही कोई शब्द काटना न पड़े,
कटे शब्द पैबंद से नजर आते,
मानता था की कविता का भाव सुन्दर लेखन में ज्यादा उभर के आते  हैं |

बाद के दिनों में कम्प्युटर आ गया,
मेरी उलझन सुलझ गयी,
लिखना अब आसान था,
अक्षरों की सुचिता पर विकल्प कई थे 
और शब्द जब काटता तो कोई निशान नहीं छूटता,
मजा यह की कोई जान भी न पाए कि,
अर्थपूर्ण कुछ पंक्तियों के बीच में बहुत कुछ बेमतलब सा सोचकर लिखने के बाद हटाया जाता था |

जीवन भी कविता लिखने जैसा ही जान पड़ा,
कहा – अनकहा, कर्म – अकर्म, 
शुरुवाती कविताओं से ही उकरते रहे अपने हिस्से का कागजों पर,
फरक सिर्फ इतना कि,
जो चूना, कहा या किया,
वह समय के सही - गलत के साथ यूंही दर्ज होता रहा,
अपने अफ़सोस की काटपीटो को लिए,

हालाँकि सफाई की धड़क आज भी वही हैं,
अब जब पन्ने पलटता हूँ तो सब कुछ जैसे मिटाने की ही कोशिशे जान पड़ती हैं ,
और काटने के डर से अब कुछ भी लिखे जाने पर विराम लगाता हूँ,

मेरे कागज़ कोरे ही सही कुचेले न होंगे ! 


Sunday, June 29, 2014

तिब्बती पठारो में 













समझते हैं हम तिब्बती पठारो में रात पसरी हुईं हैं,
सुबह हो ही नहीं पायी हैं , सन पचास से
आसन्न हैं अंधेरा
,
महज कोख और कब्र में ही नहीं

उसके बीच भी जो कुछ हैं (जीवन
?)
सिर्फ काला विस्तार
,

फिर भी जल गए क्यों
,
उजाले दे पाये क्या
,
जुगनू के मानिंद ही रही

सिर्फ 2 पल
,
तुम्हारे जिस्म के लपटो की चमक
,
सार्थकता क्या हैं स्वाह हो जाने में
,
जलने का प्रयोजन क्या हो
?

स्याह धुंधलको में अक्षर बाँचता बचपन
,
शब्द गढ़ सकता हैं

अगर कतराने मिल जाए सफ़ेद उजालों की,
लालटेन सा जलो
,
प्रकाश बनो।


चूल्हो की लकड़ी कोयला हो गयी
,
ईटों के भट्ठे राख़ हो रहे
,
ऊर्जास्रोत बचे रहे
,
भूखे पेट क्रांति के कब्रिस्तान हैं

ईधन सा जलो,
श्रम बनो।


बिखरते संकल्पो में पनपता नैराश्य
धूमिल लक्ष्यो से परिभाषित चुनौतिया
बीहड़ पे बढ़ते अनेकों कदम
सुरंगो में छोरों की खोजे दुर्गम
मशाल सा जलो,
प्रशस्त बनो।

 
चुनाव










इस बार कुछ ऐसा हो कि
पहाड़ चुन ले न रोकना मौनसूनी हवाओ को
या बादल चुने सिर्फ गरजना
बारिशें बरसना चाहे तो सिर्फ महासागरो पर
और नदिया मिल एक बहे सभी
या अस्वीकृत कर दे बंधना
खेतों में उगे तो सिर्फ कोयला
या बीज अंकुरित ही न हो
मिट्टी सब रेत बन जाना चाहे
और जंगल निर्धारित कर ले अपनी सत्ता 

और तुम ? 
 
तुमने चुना हैं विकास
चयनित ?

तुमने चुना हैं उत्पादन
शोषित ?

तुमने चुना हैं मुनाफा
दोहित ?

तुमने चुना हैं निर्माण
विस्थापित ? 

यह जान लो
चुनने का निर्णय निरपेक्ष कभी नहीं हो सकता

 
पेड़ और पिता 











पिता के जाने के बाद
एक पेड़ उग आया हैं मेरे कमरे में
द्रढ़ स्तम्भ
फैली शाखें
मूकता सी पसर गयी हैं अब कुछ हवा में
साँप जैसे सूँघता बचपने में
घूरते पिता चोरी पर कोई

असंवाद ही स्थायी रहा हमेशा हम में
कभी डर / कभी अहम
परस्पर
आखरी दिनो में अक्सर झिड़कता था मैं उन्हे
मामूली बातों में मसलन
खाँसना और बड्बड़ाना रात भर
सुनते , चुप ही रहते सहमकर
वो मौन ठहर गया वही अभी तक,
 
पिता झांक लेते जैसे हर शाम कमरे में, 
एकटक ताकता पेड़ अब,
सिगरेट जलाऊ तो पीठ फेर लेता हूँ
 
एक कमरे में ही रहते हैं दोनों अब
छू लेता हूँ जड़ो को हर खुशी पर
और दुख में डाले मुझ पर झुकी सी आती हैं
 
जो किया खुद के लिए ही
सींचता हूँ रोज़ अब पानी
हर सुबह एक पत्ता साथ लू
जेब खर्च दिन का निकल आता हैं

पहन लिया हैं पिता का चश्मा और जूते
तौलते कदम रख कई कोणो से मापता हूँ विस्तार
दीवारे गिर गई और छत हटा दी हैं मैंने
बारिशें और धूप पेड़ के और करीब ले आते है
 
बहुत बरस हो गए अब
ठूंठ निकाल आया हैं मुझमे
चुप हो चला हूँ और जड़े पकड़ ली हैं मैंने
खुद पेड़ बनने से पहले कुछ बीज बोना जरूरी होगा 

Sunday, September 1, 2013

कुछ अफगानी लड़किया

मीरमन बहीर, अफगानिस्तान काबुल में स्थित एक महिला साहित्यिक संगठन हैं,जिसमें काबुल की कई महिला रचनाकार हर शनिवार को एकत्रित होकार काव्य पाठ करती हैं।मीरमन बहीर की विशेषता यह हैं की इसमें अफगानिस्तान के दूर  दराज के तालिबानी इलाको की उन महिलाओ की कविताओं को भी शामिल किया जाता हैं, जिनके लिए अपने घर की चारदीवारी को पार करना तालिबानी नियम के अनुसार एक जघन्य अपराध हैं। फर्क सिर्फ इतना इतना हैं इन कवि गोष्ठियो में इन महिलाओ की कविताओं को फोन के द्वारा शामिल किया हैं, आंचलिक इलाको की यह लड़कियां जब भी उन्हे समय मिले चोरी छुपे मीरमन बहीर के ऑफिस में फोन करके अपनी रचना उनको फोन पर पढ़ देती हैं,जिसे मीरमन बहीर की ही कोई सदस्य कलम से दर्ज कर लेती हैं और अगली सभा में इसका पाठ होता हैं।
यह एक नायाब तरीका हैं इनका अपनी भावनाओ को एक समूह तक प्रेषित करने का और शायद इसके अलावा और कोई तरीका हो भी नहीं सकता इनके पास , एक सत्रह साल की लड़की राहिला मुशका (मुशका का पश्तो भाषा में अर्थ हैं मुस्कान)  अपनी पहचान छुपने के लिए “जरमीना” के नाम से लिखती थी, उसे मीरमन बहीर के बारें में रेडियो से पता चला था और उसकी एक सक्रिय सदस्य बन गयी थी, वह बहुतया फोन करके अपने कवितायें दर्ज करवा लिया करती थी , इस तरह वह काबुल महिला काव्य समाज में बहुत लोकप्रिय हो चली थी।
ऐसे ही एक शनिवार की दोपहर जरमीना मीरमन बहीर की फोन हॉटलाईन पर काबुल में बैठी सदस्य ओगाइ अमाइल को चोरी छुपे अपनी रचना सुना रही थी, जिसे उसके घर में उसकी भाभी ने सुन लिया और उसके भाइयों से उसकी शिकायत कर दी ,जरमीना एक प्रेम कविता पढ़ रही थी और उसके परिवार को लगा की फोन के दूसरे सिरे पर जरमीना का प्रेमी हैं जिससे वो प्रेमालाप कर रही हैं,घरवालो ने उसकी कोई भी बात नहीं सुनी और उसको तब तक मारते रहे जब तक की वो बेदम नहीं हो गयी,इसके बाद जरमीना ने आत्मदाह कर लिया, जरमीना खुद नहीं मारी, मार दी गयी उसक दोष सिर्फ इतना था वो कविता पढ़ रही थी, जो तालिबानी समाज के अनुसार एक घोर पाप हैं ।
जरमीना का निकाह उसके चचेरे भाई के साथ पैदा होती ही पक्का कर दिया गया था , और शादी से पहले ही उसका मंगेतर एक लैंडमाइन  धमाके में मारा गया जिसके बाद जरमीना का निकाह उसके एक देवर के साथ तय कर दिया गया , वह सीधा प्रतिरोध नहीं कर सकी और अपने अकेलेपन का सहारा कविताओं में खोजने लगी,

जरमीना की यह कहानी कोई एक कहानी नहीं हैं , अफगानिस्तान के कस्बो देहातों में जरमीना जैसा ही हश्र और भी बहुत से अन्य युवा कविएत्रियों का हुआ हैं जिन्होने अपनी रचनाओ में न सिर्फ अपने पिंजरों के बारे में लिखा हैं , बल्कि तालिबानी क्रूरता, अमरीकी फौज का दोहरापन,अफगान पर रूसी दमन और अफगानी स्वतन्त्रता के विषयों पर लिखा।
महिला शिक्षा पर तालिबानी नजरिएँ का कटाक्ष जरमीना ने कुछ इस तरह किया ,
      तुम मुझे स्कूल जाने की इजाजत नहीं देते ,
      लेकिन याद रखना एक दिन तुम भी बीमार पढ़ोगे ।

मुझे यह उपरोक्त सारी जानकारी न्यूयॉर्क टाइम्स मैगज़ीन में छपे , एलिजा गृस्वोल्ड द्वारा क्र्यासिस रेपोर्टिंग लिखे एक लेख से प्राप्त हुईं हैं ,जिसको पढ़ने के बाद मुझे जरमीना और उसकी जैसे अन्य लड़कियों पर खुद एक कविता लिखने की प्रेरणा मिली, इस कविता का पाठ मैंने डाइलाग (SAARC Foundation के साहित्यिक कार्यक्रम) के तत्वधान में “युवा कविता पाठ” आयोजन में 31 अगस्त 2013 को किया ।
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कुछ अफगानी लड़किया
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कुछ अफगानी लड़किया
छुप- छुप कर
पश्तो में लिखती हैं कविता
कविता में लिखती हैं स्कूल
स्कूल की खिड़कियों से शायद नीला नजर आ जाये काला आसमान,
स्कूल की दीवारें सिमटेंगी नहीं कुछ इंच हर रोज़ उसकी तरफ,
स्कूल के रास्ते में कोई तालिबानी किताबें बांटेगा उसे हर सुबह,
कुछ अफगानी लड़किया, कविता में लिखती हैं उम्मीद,

कुछ अफगानी लड़किया, कविता में लिखती हैं उम्मीद
उप्पर से बरसेगा सिर्फ पानी
बम नहीं,
अगली बारिशों में
मिट्टी से धूल जाएंगी खून की पर्ते
जमीनो में बीछेंगी फसल, बारूद नहीं
कुछ अफगानी लड़किया ,कविता में लिखती हैं अमन

कुछ अफगानी लड़किया ,कविता में लिखती हैं अमन
जेहाद गरीबी से करो ,
धमाको से भूख नहीं मिटती, खुदा के ठेकेदारो
खुदा के ठेकेदारो
मजहब सिर्फ मर्दो का खैरख्व्ह नहीं,
हर चहरे में अल्लाह बसर करता हैं
कुछ अफगानी लड़किया, कविता में लिखती हैं इबादत

कुछ अफगानी लड़किया, कविता में लिखती हैं इबादत,
किताबें पाक मे कहा तय हैं तुम्हें हमारी किस्मत का हक
हम ना कर देंगी तुम्हारे निशान को पेट में रखने से नौ महिना
इसी पनाह के बदले में ही देते हो ये कैद ...???
घरो के पिंजरे
टूट जाएंगे एक दिन
कुछ अफगानी लड़किया, कविता में लिखती हैं उड़ान

कुछ अफगानी लड़किया, कविता में लिखती हैं उड़ान
उड़ चले की यह दुनिया गैर इंसानी हैं
सरहदें सिर्फ कौमो को बाँट सकती हैं
दमन का कोई मुल्क नहीं होता
इस् पार जलाते हैं , उस पार लूटी जाती हैं.....
कुछ अफगानी लड़किया, कविता में लिखती हैं इज्जत

कुछ अफगानी लड़किया, कविता में लिखती हैं इज्जत,
करते हैं फैसला ...दुध्मुहेपन में सगाई
गुड़ियों गुड्डो की शादी
बेवक्त विधवा ... देवर का घर बसाई
बगावत तो जिंदा जलायी
कुछ अफगानी लड़किया, कविता में लिखती हैं प्रेम

कुछ अफगानी लड़किया, कविता में लिखती हैं प्रेम
कविता में पूछती हैं प्रश्न
कविता में ही देखती हैं सपने
कविता में ही तलाशती हैं अपना वजूद
कविता में पाती हैं कारण अपने होने का
कुछ अफगानी लड़किया , खुद को जीवित रख पाती हैं सिर्फ कविताओं में ही,
कुछ अफगानी लड़किया , कविताओं में लिखती हैं मौत

      ~~~ भरत खुल्बे 31 अगस्त 2013  

Sunday, March 31, 2013

माँ ने कभी छुट्टी नहीं ली













मेरे जन्म से अब तक के वर्षो में,
एक वर्ष और जोड़ लू तो कम से कम इतने साल तो हो ही गए होंगे,
माँ को खाना पकाते,
सुबह शाम / हर एक दिन / महीना  / साल दर साल,
अनवरत,
रात का कोई भी पहर हो माँ ने हमेशा ही परोसी हैं ताज़ी सिंकी गरम रोटियाँ,
दौड़ते दौड़ते,
बिन थके / रुके बिना.

और संदेह हैं मुझे ,
शादी से पहले भी
एक बेटी होना गर बचा पाया होगा ,
माँ को
मशीन बन जाने से
फर्क क्या पड़ता हैं फिर भी
माँ नहीं तो , उनकी माँ ही सही
चूल्हे में आग झोंकी या खुद को झोंका
थाली में खुद को ही तो परोसती आई हैं माएं.

माँ  'Housewife' ही रही ताउम्र,
और सालती रही हमेशा
घरकी कमाई में चार पैसे न जोड़ पाने का अपराधबोध
चार पैसे जिनसे वो खरीद सकती
मेरे लिए
Bournvita,
आवले का मुरब्बा ,
और एक अदद क्रिकेट  बैट,
जिसके न दिए जाने पर मैं सोचता रहा की माँ कही कोई जॉब क्यूँ नहीं कर लेती ?

माँ कभी बीमार नहीं पड़ी,
माँ बीमार पड़ना  'Afford'  ही नहीं कर सकती थी ,
या फिर माँ ने ही शायद चुना था , कभी भी बीमार न होना ,
'Sick leave' शायद नौकरीपेशा ही मांग सकते हैं,
बकौल दुनिया,  माँ हमेशा घर पर ही तो रहती हैं .

मेरी माँ ने कभी छुट्टी नहीं ली......