बहुत कुछ लिख नहीं पाता हूँ मैं
यूँ अक्सर लिखने के प्रयास में,
बहुत कुछ लिख नहीं पाता हूँ मैं ,
आत्मा पर
बोझ की तरह लदी कहानियों के कथानक
उमड़ते रहते हैं मेघो की तरह ,
कल्पनाओ का आसमान
ज़मीन नहीं दे पता हैं उन्हें बरसने के लिए ,
बूँदें सृजन की तृप्त नहीं कर पाती हैं मानस को,
किरदार जो उत्पन हुए ही थे समाज के अंधेरो से ,
एकांत के पलो में घेर लेते हैं मुझे
फन फैलाएं सर्पो की तरह,
इनका दंश,
विदमबनाओ की लय पर इनका नृत्य ,
इनकी विष भरी फुन्कारे मृत्यु की परिचायक नहीं ,
परिवर्तन का उदबोध हैं .
विद्रूप्ताओ के अबूझ मकद्द्जालो में फंसी कवितायेँ
आत्मसात किये हैं ,
जीवन की झुंझलाहट को / मान्यता की व्यर्थता को / संबंधो के रीतेपन को
बाँध नहीं पाती हैं स्वयं को,
ताल / छंद / की सीमाओं में,
दिशा हीन सी बहती हैं पन्नो के धरातल पर ,
यथार्थ को पन्नो में न चित्रित कर पाने की व्याकुलता ,
व्यथित कर देती हैं मन को
यूँ अक्सर लिखने के प्रयास में बहुत कुछ लिख नहीं पाता हूँ मैं
हाँ ऐसा ही तो होता है अक्सर.....हाँ ऐसा ही होता है
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