Sunday, June 29, 2014

तिब्बती पठारो में 













समझते हैं हम तिब्बती पठारो में रात पसरी हुईं हैं,
सुबह हो ही नहीं पायी हैं , सन पचास से
आसन्न हैं अंधेरा
,
महज कोख और कब्र में ही नहीं

उसके बीच भी जो कुछ हैं (जीवन
?)
सिर्फ काला विस्तार
,

फिर भी जल गए क्यों
,
उजाले दे पाये क्या
,
जुगनू के मानिंद ही रही

सिर्फ 2 पल
,
तुम्हारे जिस्म के लपटो की चमक
,
सार्थकता क्या हैं स्वाह हो जाने में
,
जलने का प्रयोजन क्या हो
?

स्याह धुंधलको में अक्षर बाँचता बचपन
,
शब्द गढ़ सकता हैं

अगर कतराने मिल जाए सफ़ेद उजालों की,
लालटेन सा जलो
,
प्रकाश बनो।


चूल्हो की लकड़ी कोयला हो गयी
,
ईटों के भट्ठे राख़ हो रहे
,
ऊर्जास्रोत बचे रहे
,
भूखे पेट क्रांति के कब्रिस्तान हैं

ईधन सा जलो,
श्रम बनो।


बिखरते संकल्पो में पनपता नैराश्य
धूमिल लक्ष्यो से परिभाषित चुनौतिया
बीहड़ पे बढ़ते अनेकों कदम
सुरंगो में छोरों की खोजे दुर्गम
मशाल सा जलो,
प्रशस्त बनो।

 
चुनाव










इस बार कुछ ऐसा हो कि
पहाड़ चुन ले न रोकना मौनसूनी हवाओ को
या बादल चुने सिर्फ गरजना
बारिशें बरसना चाहे तो सिर्फ महासागरो पर
और नदिया मिल एक बहे सभी
या अस्वीकृत कर दे बंधना
खेतों में उगे तो सिर्फ कोयला
या बीज अंकुरित ही न हो
मिट्टी सब रेत बन जाना चाहे
और जंगल निर्धारित कर ले अपनी सत्ता 

और तुम ? 
 
तुमने चुना हैं विकास
चयनित ?

तुमने चुना हैं उत्पादन
शोषित ?

तुमने चुना हैं मुनाफा
दोहित ?

तुमने चुना हैं निर्माण
विस्थापित ? 

यह जान लो
चुनने का निर्णय निरपेक्ष कभी नहीं हो सकता

 
पेड़ और पिता 











पिता के जाने के बाद
एक पेड़ उग आया हैं मेरे कमरे में
द्रढ़ स्तम्भ
फैली शाखें
मूकता सी पसर गयी हैं अब कुछ हवा में
साँप जैसे सूँघता बचपने में
घूरते पिता चोरी पर कोई

असंवाद ही स्थायी रहा हमेशा हम में
कभी डर / कभी अहम
परस्पर
आखरी दिनो में अक्सर झिड़कता था मैं उन्हे
मामूली बातों में मसलन
खाँसना और बड्बड़ाना रात भर
सुनते , चुप ही रहते सहमकर
वो मौन ठहर गया वही अभी तक,
 
पिता झांक लेते जैसे हर शाम कमरे में, 
एकटक ताकता पेड़ अब,
सिगरेट जलाऊ तो पीठ फेर लेता हूँ
 
एक कमरे में ही रहते हैं दोनों अब
छू लेता हूँ जड़ो को हर खुशी पर
और दुख में डाले मुझ पर झुकी सी आती हैं
 
जो किया खुद के लिए ही
सींचता हूँ रोज़ अब पानी
हर सुबह एक पत्ता साथ लू
जेब खर्च दिन का निकल आता हैं

पहन लिया हैं पिता का चश्मा और जूते
तौलते कदम रख कई कोणो से मापता हूँ विस्तार
दीवारे गिर गई और छत हटा दी हैं मैंने
बारिशें और धूप पेड़ के और करीब ले आते है
 
बहुत बरस हो गए अब
ठूंठ निकाल आया हैं मुझमे
चुप हो चला हूँ और जड़े पकड़ ली हैं मैंने
खुद पेड़ बनने से पहले कुछ बीज बोना जरूरी होगा