Sunday, June 29, 2014

पेड़ और पिता 











पिता के जाने के बाद
एक पेड़ उग आया हैं मेरे कमरे में
द्रढ़ स्तम्भ
फैली शाखें
मूकता सी पसर गयी हैं अब कुछ हवा में
साँप जैसे सूँघता बचपने में
घूरते पिता चोरी पर कोई

असंवाद ही स्थायी रहा हमेशा हम में
कभी डर / कभी अहम
परस्पर
आखरी दिनो में अक्सर झिड़कता था मैं उन्हे
मामूली बातों में मसलन
खाँसना और बड्बड़ाना रात भर
सुनते , चुप ही रहते सहमकर
वो मौन ठहर गया वही अभी तक,
 
पिता झांक लेते जैसे हर शाम कमरे में, 
एकटक ताकता पेड़ अब,
सिगरेट जलाऊ तो पीठ फेर लेता हूँ
 
एक कमरे में ही रहते हैं दोनों अब
छू लेता हूँ जड़ो को हर खुशी पर
और दुख में डाले मुझ पर झुकी सी आती हैं
 
जो किया खुद के लिए ही
सींचता हूँ रोज़ अब पानी
हर सुबह एक पत्ता साथ लू
जेब खर्च दिन का निकल आता हैं

पहन लिया हैं पिता का चश्मा और जूते
तौलते कदम रख कई कोणो से मापता हूँ विस्तार
दीवारे गिर गई और छत हटा दी हैं मैंने
बारिशें और धूप पेड़ के और करीब ले आते है
 
बहुत बरस हो गए अब
ठूंठ निकाल आया हैं मुझमे
चुप हो चला हूँ और जड़े पकड़ ली हैं मैंने
खुद पेड़ बनने से पहले कुछ बीज बोना जरूरी होगा 

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