Sunday, June 29, 2014

तिब्बती पठारो में 













समझते हैं हम तिब्बती पठारो में रात पसरी हुईं हैं,
सुबह हो ही नहीं पायी हैं , सन पचास से
आसन्न हैं अंधेरा
,
महज कोख और कब्र में ही नहीं

उसके बीच भी जो कुछ हैं (जीवन
?)
सिर्फ काला विस्तार
,

फिर भी जल गए क्यों
,
उजाले दे पाये क्या
,
जुगनू के मानिंद ही रही

सिर्फ 2 पल
,
तुम्हारे जिस्म के लपटो की चमक
,
सार्थकता क्या हैं स्वाह हो जाने में
,
जलने का प्रयोजन क्या हो
?

स्याह धुंधलको में अक्षर बाँचता बचपन
,
शब्द गढ़ सकता हैं

अगर कतराने मिल जाए सफ़ेद उजालों की,
लालटेन सा जलो
,
प्रकाश बनो।


चूल्हो की लकड़ी कोयला हो गयी
,
ईटों के भट्ठे राख़ हो रहे
,
ऊर्जास्रोत बचे रहे
,
भूखे पेट क्रांति के कब्रिस्तान हैं

ईधन सा जलो,
श्रम बनो।


बिखरते संकल्पो में पनपता नैराश्य
धूमिल लक्ष्यो से परिभाषित चुनौतिया
बीहड़ पे बढ़ते अनेकों कदम
सुरंगो में छोरों की खोजे दुर्गम
मशाल सा जलो,
प्रशस्त बनो।

 

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