Saturday, June 16, 2018

मेरे कागज़ कोरे ही सही कुचेले न होंगे ! 

बचपन से ही मेरी लिखाई बहुत सुन्दर थी,
इम्तिहान में मुझे लिखे हुएं से ज्यादा लिखाई के नंबर मिल जाते थे,
फिर कवितायें लिखने लगा,
पापा ने एक डायरी ला के दी थी जन्मदिन पर,
सुनहरी कवर सफ़ेद झक पन्नो वाली,
कविता पहले रफ में लिख लेता काटपीट के साथ किसी कागज़ में,
और फिर पूरी होने पर जैल वाले पेन से डायरी में उतार लेता पूरे मन से |

मुझे लिखने में सफाई बहुत पसंद थी, लिखे जाने से भी ज्यादा
इतनी की जब लिखता तो दिल धड़कता,
सावधानी से ..कही कोई शब्द काटना न पड़े,
कटे शब्द पैबंद से नजर आते,
मानता था की कविता का भाव सुन्दर लेखन में ज्यादा उभर के आते  हैं |

बाद के दिनों में कम्प्युटर आ गया,
मेरी उलझन सुलझ गयी,
लिखना अब आसान था,
अक्षरों की सुचिता पर विकल्प कई थे 
और शब्द जब काटता तो कोई निशान नहीं छूटता,
मजा यह की कोई जान भी न पाए कि,
अर्थपूर्ण कुछ पंक्तियों के बीच में बहुत कुछ बेमतलब सा सोचकर लिखने के बाद हटाया जाता था |

जीवन भी कविता लिखने जैसा ही जान पड़ा,
कहा – अनकहा, कर्म – अकर्म, 
शुरुवाती कविताओं से ही उकरते रहे अपने हिस्से का कागजों पर,
फरक सिर्फ इतना कि,
जो चूना, कहा या किया,
वह समय के सही - गलत के साथ यूंही दर्ज होता रहा,
अपने अफ़सोस की काटपीटो को लिए,

हालाँकि सफाई की धड़क आज भी वही हैं,
अब जब पन्ने पलटता हूँ तो सब कुछ जैसे मिटाने की ही कोशिशे जान पड़ती हैं ,
और काटने के डर से अब कुछ भी लिखे जाने पर विराम लगाता हूँ,

मेरे कागज़ कोरे ही सही कुचेले न होंगे ! 


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