Sunday, September 20, 2009

सत्य हैं















शिला से जड़,
चिथरो में लिपटें,
खुले आकाश के नीचे बैठे ,
चाँद को क्यों देखते हो ?,
उचाईया सत्य नहीं होती,
मिटटी से तुम्हारा सम्बन्ध ही सत्य हैं ,

सत्य यह नहीं की,
किसी वृक्ष की डाल पर बैठ तुम क्षितिज को छू लोगे,
अपितु अगम्य असीम क्षितिज को लक्षित कर भरी उडान ही सत्य हैं,

जीवन के कैनवास  पर खीची आड़ी तिरछी  रेखाएं,
सौंदर्य का बोध नहीं,
अपितु विध्वंस को चित्रित करती तुम्हारी कला में प्रर्दशित मानसिक विकृति ही सत्य हैं,

वह रक्त जो तुम सदियों से बहते आये हो निष्कर्म प्रयोजनों पर
परिश्रम नहीं,
अपितु मुट्ठी भर अनाज कमाने पर छलकी स्वेद  बूँद ही सत्य हैं,

संघर्षो में लिप्त सृजन साहित्य
सब मिथ्या हैं ,
अपितु लिखने के प्रयास में रत शिशु का प्रथम अक्षर ही सत्य हैं.

2 comments:

  1. Shubhasish ho...I am falling in love with last line....


    Love....
    Ajay..

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  2. जीवन का कितना बड़ा सच कह जाती है ये कविता...बेहतरीन

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