Monday, September 21, 2009

सोचो क्यों














सोचो क्यों अक्सर,
संकल्प बिखर जाया करते हैं,
गमले में रखे पौधों के पत्तो पर पड़ी बूँद की तरह

शायद तुम्हारे
अस्तित्व का स्थायित्व भी
कुछ ऐसा ही स्वरुप ग्रहण कर चूका हैं.

सर्द हवा के झोंके क्यों पल्लवित नहीं होने देते ,
पुष्प खिलने के पूर्व अक्सर ही बिखर जाया  करते हैं ,

सांझ का सूनापन घेर लेता हैं अक्सर,
जब मन के झरोखे से
अन्यास ही कुछ  किरणे  मद्धिम सी उतरकर
अठखेलिया करती हैं,
पानी में लकीरें खीचना प्रतीक  बन गया हैं तुम्हारा,
कर्तव्यों के दर्पण से मुहँ छुपाना
प्रकीति  बन गयी हैं शायद.

बारिशों की प्रतीक्षा में
अपने खेतों की मेडो पर कब तक बैठे रहोगे,
यू हाथ हाथ धरे,
उठो नहरे  खोद डालो,
पुनर्निमाण यूँ ही नहीं होता.

संकल्पों का बिखरना
बहम हैं तुम्हारा ,
नैराश्य के अंधकार में घिरे तुम्हारे अस्तित्व को
प्रेरित करने के लिए प्रेरणा की एक किरण ही काफी हैं .

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