Sunday, October 25, 2009

नाम













मेरे बच्चे
जो नाम मैं दे रहा हूँ तुम्हे
उसे माथे पर कील सा ठोक लेना तुम
ओढ़ लेना बदन पर खाल की तरह
अस्तित्व से चिपकने के लिए.

ढलती दोपहरों की परछाई सा  पीछे नहीं चलेगा यह नाम
तुम्हारे
पहुँचने से पहले ही सावधान कर देगा लोगो को
सुविधानुसार मुखौटे पहनने  के लिए.

इसकी उपयोगिता
अर्थ , परिभाषा या लिंग से साबित नहीं होगी
और न ही महत्ता को कोई बल मिलेगा 
सिर्फ इसके पर्यावाची या उपमानों से,

इसका धर्म 
मिटटी  देगा जीवन को पुष्पित पल्लवित होने  के लिए 
और  जाति से
जल और खाद  मिलेगा कर्मो को.

Thursday, October 1, 2009

टुकड़े

उदास कदमो की आहट अब चुकती नहीं,
शायद तुम्हारी परछाईया सिमट चुकी हैं ,
या तुम्हारा अस्तित्व स्वार्थ के घने कोहरों में धुंधला गया हैं

महत्वकांछाओ की बुनियाद पे टिके,
महल की छत पर खड़े हो क्या गगन को पा लोगे ?

बंद कमरों के साये का आलिंगन करते
अपनी दुनिया को चार कमरों में सीमित कर लिया हैं तुमने
तुम बाटे   जा चुके हो
कई टुकडो में
कुछ भयवश
कुछ मजबूरी वश

तुम एक नहीं रहे ,
अनेक हो गए हो

एक होना वैसे भी कब  चाहा था तुमने  ?
पृथक पृथक ही रखा करते थे स्वयं को   
उत्तरदायित्वों से.

Saturday, September 26, 2009

बहुत कुछ लिख नहीं पाता हूँ मैं 
















यूँ अक्सर लिखने के प्रयास में,
बहुत कुछ लिख नहीं पाता हूँ मैं ,
आत्मा पर
बोझ की तरह लदी कहानियों के कथानक
उमड़ते रहते हैं मेघो की तरह , 
कल्पनाओ का आसमान
ज़मीन नहीं दे पता हैं उन्हें बरसने के लिए ,
बूँदें सृजन की तृप्त  नहीं कर पाती हैं मानस को,
किरदार जो उत्पन हुए ही थे समाज के अंधेरो से ,
एकांत के पलो में घेर लेते हैं मुझे 
फन फैलाएं सर्पो की तरह,
इनका दंश,
विदमबनाओ की  लय पर इनका नृत्य ,
इनकी विष भरी फुन्कारे मृत्यु की परिचायक नहीं ,
परिवर्तन का उदबोध हैं .

विद्रूप्ताओ  के अबूझ  मकद्द्जालो  में  फंसी  कवितायेँ
आत्मसात किये हैं ,
जीवन की झुंझलाहट को / मान्यता की व्यर्थता को / संबंधो के रीतेपन को
बाँध नहीं पाती हैं स्वयं को,
ताल  / छंद   /  की सीमाओं में,
दिशा हीन सी बहती हैं पन्नो के धरातल पर ,
यथार्थ को पन्नो में न चित्रित कर पाने की व्याकुलता ,
व्यथित  कर देती हैं मन को
यूँ अक्सर लिखने के प्रयास में बहुत कुछ लिख नहीं पाता हूँ मैं

Monday, September 21, 2009

सोचो क्यों














सोचो क्यों अक्सर,
संकल्प बिखर जाया करते हैं,
गमले में रखे पौधों के पत्तो पर पड़ी बूँद की तरह

शायद तुम्हारे
अस्तित्व का स्थायित्व भी
कुछ ऐसा ही स्वरुप ग्रहण कर चूका हैं.

सर्द हवा के झोंके क्यों पल्लवित नहीं होने देते ,
पुष्प खिलने के पूर्व अक्सर ही बिखर जाया  करते हैं ,

सांझ का सूनापन घेर लेता हैं अक्सर,
जब मन के झरोखे से
अन्यास ही कुछ  किरणे  मद्धिम सी उतरकर
अठखेलिया करती हैं,
पानी में लकीरें खीचना प्रतीक  बन गया हैं तुम्हारा,
कर्तव्यों के दर्पण से मुहँ छुपाना
प्रकीति  बन गयी हैं शायद.

बारिशों की प्रतीक्षा में
अपने खेतों की मेडो पर कब तक बैठे रहोगे,
यू हाथ हाथ धरे,
उठो नहरे  खोद डालो,
पुनर्निमाण यूँ ही नहीं होता.

संकल्पों का बिखरना
बहम हैं तुम्हारा ,
नैराश्य के अंधकार में घिरे तुम्हारे अस्तित्व को
प्रेरित करने के लिए प्रेरणा की एक किरण ही काफी हैं .
चुरा लिए हैं मैंने कुछ पल
















चुरा लिए हैं मैंने
कुछ पल ,
जीवन की शाख से अपने लिए,
रख दिया हैं सहेज के उन्हें.
भागते समय की बदहवासी में,
जब एक भी पल अपना पा न सकू,
तो जियु,
इन चुराएं पालो में एक पूरा जीवन.

Sunday, September 20, 2009



कैसा होगा वह पल





















कैसा होगा वह पल,
जब मेरी प्रतीक्षा में राह देखते,
बोझिल हो गयी होंगी
पलके तुम्हारी,
जब तुमने  लिखने तो शुरु किये होंगे कई पत्र,
पर शायद पूर्ण एक भी न कर पाई होगी.

पढ़ा होगा तुमने अकेले मेरे,
मेरी हरेक कविता को
सैकरो बार
बार बार
और ढूँढने की कोशिश की होगी,
खुद को
हर पंक्ति हर शब्द में ,
गुनगुनाती रही होगी तुम
गीत मेरे लिखते  हुएँ  नाम मेरा
किताब के आखरी पन्ने पर
दीवार पर
और न जाने कहाँ  कहाँ ,

कैसा होगा वह पल,
जब मेरा होना,
आधार बन गया होगा जीवन का तुम्हारे,
और उद्देश्य बन गया होगा मुझे पाना ,
तब  न सोचा कभी,
जीवन के दोराहे में
अलग अलग रहो पर
मीलों बढ़ चुके होंगे हम,
और हमारा मिलन असंभव
धरा गगन की तरह
रात और दिन की तरह
नदी के दो किनारों की तरह.
सत्य हैं















शिला से जड़,
चिथरो में लिपटें,
खुले आकाश के नीचे बैठे ,
चाँद को क्यों देखते हो ?,
उचाईया सत्य नहीं होती,
मिटटी से तुम्हारा सम्बन्ध ही सत्य हैं ,

सत्य यह नहीं की,
किसी वृक्ष की डाल पर बैठ तुम क्षितिज को छू लोगे,
अपितु अगम्य असीम क्षितिज को लक्षित कर भरी उडान ही सत्य हैं,

जीवन के कैनवास  पर खीची आड़ी तिरछी  रेखाएं,
सौंदर्य का बोध नहीं,
अपितु विध्वंस को चित्रित करती तुम्हारी कला में प्रर्दशित मानसिक विकृति ही सत्य हैं,

वह रक्त जो तुम सदियों से बहते आये हो निष्कर्म प्रयोजनों पर
परिश्रम नहीं,
अपितु मुट्ठी भर अनाज कमाने पर छलकी स्वेद  बूँद ही सत्य हैं,

संघर्षो में लिप्त सृजन साहित्य
सब मिथ्या हैं ,
अपितु लिखने के प्रयास में रत शिशु का प्रथम अक्षर ही सत्य हैं.
तुम्हारा रुदन जग का संगीत





















शिकायतें मत करो,
मत करो व्यतीत घुटन भरा जीवन,
मत करो अश्रुओं का पान,
वेदना का प्रदर्शन भी मत करो,
मत करो हिंसक प्रतिकार,
मत गिराओ आत्मा को निम्नता का तल तक,
क्यूँकि तुम्हारी आक्रमकता,
वेदना भरे स्वरों में परिलक्षित,
मानसिक अन्तर्द्वन्दत,
प्रताड़ना के बावजूद प्रर्दशित अतुलनीय धैर्य,
दोनों ही स्वयं तुम्हारे अस्तित्व के लिए घातक बन जाते हैं,
तुम जग करूणा की आशा करते हो,
और चाहते हो कि कोई तुम्हारे घावो पर मरहम लगाये,
यह माना कि,
झूठा दयाभाव लिए,
कई निगाहें तुम्हे निहारती हैं,
जबकि कटु सत्य यही हैं कि,
तुम्हारा यह दयनीय स्वरुप,
जयघोष करता हैं,
तुम्हारे तथाकथित चाहने वालो कि विजय का,
और तुम्हारा रुदन,
जग का बन संगीत जाता हैं.